हरेक सवाल का तनहा जवाब मैं ही था
निगाहे-नाज़ तेरा इन्तखाब मैं ही था,
न उठती कैसे ज़माने की ऊगलियाँ मुझ पर
चमन में एक शगुफ्ता गुलाब मैं ही था,
तुम्हारे आँखों ने देखा तमाम उम्र जिसे
तुम्हारे शहरे-निगाराँ का खाब में ही था,
किया था गर्दिशे-दौराँ ने जिसको झुक के सलाम
कसम खुदा की वो इक इन्कलाब में ही था,
‘उमेश’ माँ की दुआ साथ-साथ थी मेरे
हरेक महाज़ पे बस कामयाब में ही था।
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