शहर में ऐसा कोई भी पत्थर न था
दोस्तों जो मेरे खून से तर न था,
सिजदागाहें भी थीं खून से तर बतर
सर झुकाने के लायक कोई दर न था,
आग नफरत की चारों तरफ थी लगी
शोले उठते थे महफूज़ इक घर न था,
सारी कलियाँ सिसकती रहीं रात भर
गुलसिता में कोई भी गुलेतर न था,
बोलता सच अदालत में किस तरह में
जिस्म पर मेरे जबकि मेरा सर न था,
हाले-ग़म अपना किसको सुनाता “उमेश
साथ जब मेरे मेरा मुकद्दर न था।।
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