रात दहशत में है डूबी, ढले तो कुछ सोचें
सर से ये ज़ुल्म का तूफां, टले तो कुछ सोचें,
लगी है फिरकापरस्ती की आग घर-घर में
खुलूसो-प्यार की शम्आ, जले तो कुछ सोचें,
सहीफा कैसे अख़ुव्वत का मैं लिखूँ तनहा
मिलें जो हिन्दू-मुसलमाँ गले तो कुछ सोचें,
जफा वो ज़ुल्म से मुँह मोड़कर अगर यारो
जमाना राह-ए-वफा पर चले तो कुछ सोचें,
दरार उनके मेरे दरम्याँ है जिनसे वो जय
‘उमेश’ हल हों अगर मसअले तो कुछ सोचें
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